सोमसी देष्टा: Baijnath Shiv Temple
हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराएं अत्यंत समृद्ध हैं। हिमाचल देवी-देवताओं तथा श्रृषि-मुनियों के धार्मिक स्थलों के लिए भी विख्यात है। यहां के मंदिर व धार्मिक स्थल वर्षभर पूरे भारत से आने वाले भक्तों, विदेशी पर्यटकों और तीर्थ यात्रियों को अपनी और आकर्षित करते हैं। ऐसा ही एक धार्मिक स्थल है हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में का बैजनाथ शिव मंदिर। बैजनाथ शिव मंदिर उत्तर भारत का प्रसिद्ध धाम है। विश्व भर के शिव भक्त यहां भगवान शिव का आशीर्वाद लेने आते हैं।
अत्यंत सुंदर है मन्दिर की सरंचना
मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग है। गर्भगृह में प्रवेश एक ड्योढ़ी से होता है, जिसके सामने एक बड़ा वर्गाकार मंडप बना है और उत्तर और दक्षिण दोनों तरफ बड़े छज्जे बने हैं। मंडप के अग्र भाग में चार स्तंभों पर टिका एक छोटा बरामदा है। पूरा मंदिर एक ऊंची दीवार से घिरा है और दक्षिण और उत्तर में प्रवेश द्वार हैं। बरामदे का बाहरी द्वार गर्भगृह को जाता है, जबकि अंदरूनी द्वार सुंदरता और महत्त्व को दर्शाते अनगिनत चित्रों से भरा पड़ा है। बाहरली दीवारों पर अनेकों चित्रों की नक्काशी हुई है। मंदिर के मुख्य कक्ष में शिला-फलक चट्टान पर नक्काशित दो लंबे शिलालेख हैं जो शारदा लिपि में संस्कृत और टांकरी लिपि में स्थानीय बोली पहाड़ी का उपयोग करके लिखे गए हैं। मंदिर के प्रांगण में कुछ छोटे मंदिर हैं और नंदी बैल की मूर्ति है। नंदी के कान में भक्तगण अपनी मन्नत मांगते है।
निर्माण काल
हिमाच्छादित धौलाधार पर्वत श्रृंखला के प्रांगण में स्थित है बैजनाथ शिव मंदिर नागर शैली में बना है। पौराणिक कथाओं और उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण कार्य ‘आहुका’ और ‘ममुक’ नाम के दो व्यापारी भाइयों ने 1204 ई. में किया था। इस मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थरों से किया गया है।
पांडव नहीं बना पाए पूरा मंदिर
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार द्वापर युग में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान इस मंदिर का निर्माण किया था। स्थानीय लोगों के अनुसार इस मंदिर का शेष निर्माण कार्य ‘आहुक’ एवं ‘मनुक’ ने 1204 ई. में पूर्ण किया था और तब से लेकर अब तक यह स्थान ‘शिवधाम’ के नाम से उत्तरी भारत में प्रसिद्ध है। किन्तु उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह आख्यान उचित प्रतीत नहीं होता है।
रावण से जुड़ी है मंदिर की स्थापना की कहानी
यह मंदिर अपनी पौराणिक कथाओं, वास्तुकला और सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर की स्थापना की कहानी रावण से जुड़ी है। पौराणिक कथा के अनुसार त्रेता युग में रावण ने हिमाचल के कैलाश पर्वत पर शिवजी के निमित्त तपस्या की। कोई फल न मिलने पर उसने घोर तपस्या प्रारंभ की। अंत में उसने अपना एक-एक सिर काटकर हवन कुंड में आहुति देकर शिव को अर्पित करना शुरू किया। दसवां और अंतिम सिर कट जाने से पहले शिवजी ने प्रसन्न हो प्रकट होकर रावण का हाथ पकड़ लिया। उसके सभी सिरों को पुनस्र्थापित कर शिवजी ने रावण को वर मांगने को कहा। रावण ने कहा मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूं। आप दो भागों में अपना स्वरूप दें और मुझे अत्यंत बलशाली बना दें। शिवजी ने तथास्तु कहा और लुप्त हो गए। लुप्त होने से पहले शिवजी ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिह्न रावण को देने से पहले कहा कि इन्हें जमीन पर न रखना। अब रावण लंका को चला और रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र (बैजनाथ क्षेत्र) में पहुंचा तो रावण को लघुशंका लगी। उसने बैजु नाम के ग्वाले को सब बात समझाकर शिवलिंग पकड़ा दिए और शंका निवारण के लिए चला गया। शिवजी की माया के कारण बैजु उन शिवलिंगों के वजन को ज्यादा देर न सह सका और उन्हें धरती पर रख कर अपने पशु चराने चला गया। इस तरह दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए। सामने जो शिवलिंग था वह चंद्रभाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो पीठ की ओर था वह बैजनाथ के नाम से जाना गया।
यहां नहीं मनाया जाता दशहरा
दशहरा का उत्सव, जो परंपरागत रूप से रावण का पुतला जलाने के लिए मनाया जाता है। लेकिन बैजनाथ में दशहरा नहीं मनाया जाता। रावण शिव का प्रिय भक्त था। बैजनाथ में इस दिन को रावण द्वारा की गई भगवान शिव की तपस्या ओर भक्ति करने के सम्मान के रूप में मनाया जाता है। कहते हैं कि एक बार कुछ स्थानीय लोगों ने दशहरे के दौरान रावण का पुतला जलाया था और इसके बाद आयोजकों तथा उनके परिवारों को अनिष्ट झेलना पड़ा। उसके बाद किसी ने भी यहां दशहरा मनाने की कोशिश नहीं की।
यहां नहीं बेचा जाता सोना
शिव नगरी बैजनाथ शहर के बारे में एक और दिलचस्प बात यह है कि यहां सुनार की कोई दुकान नहीं है। जबकि यहां के सटे कस्बे पपरोला में स्वर्ण आभूषणों का काफी अच्छा कारोबार है। मान्यता के अनुसार लोग इसे भी शिव भक्त रावण की सोने की लंका से जोड़ कर देखते हैं। कहा जाता है कि रावण को सोना बहुत पसंद था इसलिए यहां सोना नहीं बेचा जाता।
कीरग्राम ऐसे बना बैजनाथ
काफी कम लोग जानते हैं कि बैजनाथ नाम पहले कीरग्राम था। कहा जाता है कि पहले यहां कीरात राजा का शासन था। तो कुछ लोग कहते हैं कि यहां कीर यानी तोते अधिक पाए जाते थे। इस कारण इसे कीरग्राम कहा जाता था। बाद में इसका नाम बैद्यनाथ (वैद्य+नाथ यानि चिकित्सकों के प्रभु) रखा गया। यहीं से बिगड़ते-बिगड़ते यहां का नाम बैजनाथ हो गया। यह बैद्यनाथ के रूप में भगवान शिव को समर्पित है। शिलालेखों के अनुसार वर्तमान बैजनाथ मंदिर के निर्माण से पूर्व भगवान शिव के मंदिर का अस्तित्व था।
धार्मिक आस्था का केंद्र
बैजनाथ शिव मंदिर में हर दिन सुबह और शाम में पूजा की जाती है। इसके अलावा विशेष अवसरों और उत्सवों में विशेष पूजा-अर्चना होती है। मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, वैशाख संक्रांति, श्रावण सोमवार आदि पर्व भारी उत्साह और भव्यता के साथ मनाऐ जाते हैं। माघ कृष्ण चतुर्दशी को यहां विशाल मेला लगता है जिसे तारा रात्रि के नाम से जाना जाता है। श्रावण मास में पड़ने वाले हर सोमवार को मंदिर में पूजा अर्चना का विशेष महत्व माना जाता है। श्रावण के सभी सोमवार को मेले के रूप में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर हर वर्ष पांच दिवसीय राज्य स्तरीय समारोह आयोजित किया जाता है।
स्नान का महत्त्व
मंदिर के साथ बहने वाली विनवा खड्ड पर बने खीर गंगा घाट में स्नान का विशेष महत्व है। श्रद्धालु स्नान करने के उपरांत शिवलिंग को पंचामृत से स्नान करवा कर उस पर बिल्व पत्र, फूल, भांग, धतूरा इत्यादि अर्पित कर भोले बाबा को प्रसन्न करके अपने कष्टों एवं पापों का निवारण कर पुण्य कमाते हैं।
कैसे पहुंचे
बैजनाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए दिल्ली से पठानकोट या चण्डीगढ़-ऊना होते हुए रेलमार्ग, बस या निजी वाहन व टैक्सी से पंहुचा जा सकता है। दिल्ली से पठानकोट और कांगड़ा जिले में गग्गल तक हवाई सेवा भी उपलब्ध है।
Posted By: Himachal News